कितना प्यारा लगता है रोज़ा आ’ला हज़रत का
बातिल को बातिल लिखा, हक़ को बस हक़ ही कहा
क्यूँ न खन खन खनकेगा सिक्का आ’ला हज़रत का
मीठा मीठा लगता है नग़्मा आ’ला हज़रत का
कितना प्यारा लगता है रोज़ा आ’ला हज़रत का
ये मुनाफ़िक़ कूड़ा करकट है, ये ठोकर से उड़ जाएगा
आएगा जब झूम के झोंका आ’ला हज़रत का
मीठा मीठा लगता है नग़्मा आ’ला हज़रत का
कितना प्यारा लगता है रोज़ा आ’ला हज़रत का
इक दिन ऐसा आएगा गुस्ताख़-ए-नबी तू देखना
दुनिया में लहराएगा झंडा आ’ला हज़रत का
मीठा मीठा लगता है नग़्मा आ’ला हज़रत का
कितना प्यारा लगता है रोज़ा आ’ला हज़रत का
ये भी एक करामत है गुस्ताख़-ए-नबी तू देख ले
दोनों हाथों से कलम चलता आ’ला हज़रत का
मीठा मीठा लगता है नग़्मा आ’ला हज़रत का
कितना प्यारा लगता है रोज़ा आ’ला हज़रत का
मारहरा में पहले ही बतलाया आल-ए-रसूल ने
मुफ़्ती-ए-आज़म कहलाया बेटा आ’ला हज़रत का
मीठा मीठा लगता है नग़्मा आ’ला हज़रत का
कितना प्यारा लगता है रोज़ा आ’ला हज़रत का
नातख्वां:
वासिफ़ रज़ा नूरी